NEW EXPERIENCE

Sunday, March 30, 2008

तुम मैं और हम

मैं , अहम का शब्द है। जबकि तुम संवाद क़ायम करने की आवश्यक शर्त। हम में सभी को समेटने की ताकत । इन सभी शब्दों की यह सामाजिक समझ है, जिसको हम सभी आमतौर पर मानते हैं , इतना ही नहीं एक फिल्मकार को इन शब्दों ने इतना प्रभावित कर दिया कि उसने इसे बिम्बों के ज़रिये अभिव्यक्त करने का बीड़ा ही उठा लिया। पर क्या इन तीन शब्दों का अस्तीत्व केवल शब्द होने तक ही सिमित है, नहीं एसा नहीं है, मैं कहता हूँ , कि इन्हीं तीन शब्दों ने दुनिया में तमाम झंझावातों को जन्म दिया है। हम सबका भी एसा ही मानना हो सकता है, जिनमें शायद सारे तुम शामिल हों ।पर क्या ये सब समझते हुए भी हम इन शब्दों के मनोविज्ञान से ख़ुद को अभी तक जोड़ पाये हैं। नहीं अभी तक नहीं , और शायद इस बाजारू दुनिया में जोड़ भी नहीं पायेंगे।

Saturday, March 8, 2008

युद्ध

युद्ध तो सदा होते रहेंगे
शांति और अशकंति का ये
चक्रव्यूह चलते रहेगें...............
श्रृष्टि के पाँच तत्व
संसार का सृजन
कर यूँ ही मर्दन करते रहेंगे।
और हम , प्रगति के द्वार दस्तक देने को आतुर
विध्वंस का जाल बुनते रहेंगे
कौन, किसको, किसलिए मार रहा है...............
मृत्यू का ये अनुत्तरित प्रश्न
जाने कब अपने कपाट खोलेगा
शांति का श्वेत दूत
जाने कहाँ मौन विश्राम करता
होगा ज्ञान और विज्ञान के संग्रह
बार बार प्रेरित करेंगें हमें
उन्माद के प्रक्षेपण को
आनन्द और अवसाद के महासमर
यूँ हीलअनवरत चलते रहेंगें
युद्ध तो सदा होते रहेंगे
युदध को मिटाने का बीड़ा उठाना भी
युदध का ही प्रतिरूप है।
आयुधों से यूँ ही
हरे भरे मैदान पटते रहेंगे
इसे रोकने के साधन ही
हमें युदध में झोंकते रहेंगें
युदध तो सदा होते रहेंगें
प्रलय का पाश ले मनुष्य
जाने कितने अदृश्य लक्ष्यों की आर
बढ़ने का उपक्रम करता रहेगा
और अंत तो शून्य ही होगा
जहाँ से हम चले थे
शून्य से शून्य की ओर बढ़ते रहेंगें
युद्ध तो सदा होते रहेंगें....
युद्ध तो सदा होते रहेंगें।

Thursday, March 6, 2008

ख़बरावलों की ख़बर

टीवी पत्रकारिता के सही स्वरूप के बारे में कोई भी राय बनाना बहुत मुशिकल है, लेकिन एक बात जो बिल्कुल साफ है, वो ये कि टीवी पत्रकारिता तकनीकी दबाव में कहीं गुम सी होती नज़र आ रही है। पर सबसे अहम मुद्दा इस माध्।म के पत्रकारों का है , जो संवेदनशीलता के सभी पैमानों से लगातार नीचे गिरते जा रहे हैं(कुछ चुने हुए लोगों को छोड़कर जिनसे उम्मीद अभी भी जिन्दा है)वो या तो ख़बरों की मापतौल भूल गये हैं , या अपनी आँखों पर पट्टी बाँध चुके हैं। या फिर ख़बरों का दायरा उनके लिए सीमित हो चुका है।सवाल की गंभीरता इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकी इस देश की दो तिहाई आबादी टीवी जैसे अहम माध्यम में प्रतिनिधित्व नहीं पा रही। बावजूद इसके कि इस चकमक माध्यम में काम कर रहे अधिकांश लोग इसी तबके से आते हैं।टीवी बनाम प्रिंट पत्रकारिता से जुडी तमाम बहसों में इस मुद्दे पर सिर फुट्टैव्वल तो बहुत हो चुका लेकिन हल अभी तक नज़र नही आया। अगर वर्तमान त्वरूप की बात करें तो आधुनिक टीवी पत्रकारिता लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ होना तो दूर अभी उसकी ज़मीन भी नहीं है। इस गंभीर सवाल का चिंतन किसी एक के ज़िम्मे नहीं बल्कि सभी के हिस्से है। देखना ये है कि ये बात कहाँ तक जाती है।