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Thursday, July 10, 2008

परमाणु क़रार का दूसरा पहलू

(साभार एनडीटीवी ख़बर.कॉम से....सौजन्य--रवीश कुमार--दरअसल धर्म मार्ग के सच को जिस तरह रवीश जी ने बयान किया है...उसके बाद मुझे इसमे कुछ जोड़ने की बजाय इसे प्रसारित करने की आवश्यकता महसूस हुई..इसलिए आप सबके सामने इसे पेश कर रहा हूं)

परमाणु मार्ग से गांधी मार्ग की ओर
रवीश कुमार
नई दिल्ली, सोमवार, जुलाई 7, 2008
पानी को लेकर परेशान गांधीवादी अनुपम मिश्र गांधी मार्ग पत्रिका निकालते हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान की इस पत्रिका में परमाणु समझौते की अपनी अलग व्याख्या की गई है। आज की बहस से 21 साल पहले अनिल अग्रवाल और प्रफुल्ल विदवई के लेख के ज़रिये अनुपम मिश्र इस बहस में विकल्प पेश करते हैं।
यह लेख बता रहा है कि परमाणु ऊर्जा बेहद खर्चीली योजना है। इसे साकार करने के लिए तमाम तरह के संगठन हैं। परमाणु कार्यक्रम को लेकर कई तरह के सपने भी बेचे गए हैं, लेकिन इस पूरी बहस में यह चिंता ग़ायब है कि परमाणु बिजली संयंत्रों से पैदा होने वाला कचरा कितना ख़तरनाक है। इस कचरे को न केवल प्लूटोनियम से अलग करते समय सावधानी बरतनी होती है, बल्कि हज़ारों साल तक भंडारण का इंतजाम भी करना होता है। अनेक लोगों का मानना है कि इस समस्या का स्थायी हल नहीं है। एक बार प्लूटोनियम को अलग कर लेने के बाद परमाणु आयोग की योजना इस अत्यंत ज़हरीले कचरे को कांच में बदलकर एक ही जगह स्थिर की जा सकती है। लेकिन यहां भी इसे कांच को शीतगृह में 20 साल तक स्थिर रखा जाता है। फिर अंत में उसे किसी ऐसी जगह रखना होता है, जहां पानी, भूचाल, युद्ध या तोड़-फोड़ की कोई भी घटना हज़ारों साल तक छेड़ न सके। परंतु ऐसी जगह मिलना मुश्किल है। हिमालय, सिंधु-गंगा के कछार, थार के रेगिस्तान और दक्षिणी पठार आदि भूजल की अधिकता के कारण रद्द किए जा चुके हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र और उससे लगे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ ज़िलों का कंकरीला पठार इसके लिए उपयोगी हो सकता है। 21 साल पहले के इस लेख में अग्रवाल और बिदवई सवाल उठाते हैं कि अगर ऐसी जगह मिल भी गई तो क्या हज़ारों साल तक उसकी सुरक्षा की जा सकती है। कहते हैं कि हमारा परमाणु ऊर्जा आयोग बहुत महत्वकांक्षी है।
परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियोधर्मी कचरा अनंतकाल तक, यानि जब तक यह धरती है, बिल्कुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक, जो इसका दावा कर सकता है... परमाणु ऊर्जा के कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है। यह विष आज संसार में 20,000 टन तक की मात्रा में मौजूद है। इसका अधिकांश भाग बिजलीघरों में काम आ चुके ईंधन के हौजों में पड़ा है।
इतना ही नहीं, यह लेख यह भी जानकारी देता है कि पुराने हो चुके परमाणु बिजलीघरों को बंद करने में भी इसी प्रकार की आर्थिक परेशानी पैदा होती है। यह बंद करना इसलिए भी ग़लत है, क्योंकि उसका अर्थ होता है - साधारण रीति से किसी निर्जन मकान में ताला लगा देना। लेकिन दसियों साल तक काम करते रहने वाले परमाणु संयंत्रों के अनेक हिस्सों में रेडियोधर्मिता छा चुकी होती है। बंद करते समय उन्हें कंक्रीट की बहुत मोटी तह वाली एक विशाल कब्र में दफनाकर सदियों तक वायुमंडल से बचाकर रखना पड़ेगा। अब तक तोड़ा गया सबसे बड़ा संयंत्र अमेरिका में मिन्नेसोटा स्थित 22 मेगावाट क्षमता का एल्क नदी संयंत्र है। पूरी प्रक्रिया में दो साल और 60 लाख डॉलर लगे। आगे जिन बिजलीघरों को दफनाना होगा, वे तो इससे 50 गुना बड़े और सैंकड़ों गुना अधिक रेडियोधर्मी प्रदूषित संयंत्र हैं। आखिर क्या बात है कि अमेरिका में 1976 के बाद से एक भी नए रिएक्टर के लिए अनुमति नहीं दी गई है। 1975 में 90 से भी अधिक संयंत्र रद्द कर दिए गए। एक अमेरिकी विद्वान ने लिखा है कि जिस देश ने संसार को परमाणु विद्युत के युग में प्रवेश कराया, वही संसार को उससे मुक्त कराने में भी अगुवाई करेगा।
अभी ऐसे दिन तो नहीं आए हैं, लेकिन परमाणु ऊर्जा ही एकमात्र विकल्प होता तो दुनिया इसी के पीछे भागती। ऊर्जा के अन्य विकल्पों के मंत्रालय नहीं होते। जितना पैसा परमाणु ऊर्जा के नाम पर बहाया गया है, उनसे तो सूरज से चलने वाले लाखों पंप चालू हो सकते थे, लेकिन यह सब नहीं हुआ। परमाणु ऊर्जा को लेकर बहस हो रही है। हमारी राष्ट्रीय तरक्की के लिए सबसे ज़रूरी है। कोई यह नहीं बता रहा है कि इसके ख़तरे क्या हैं। गांधी मार्ग में छपा यह लेख बता रहा है।

परमाणु उर्जा और आम आदमी

पिछले चार साल का साझा तानाबाना टूट गया..करार ने आदमी के सरोकारों के सभी बंधन तोड़ डाले..देश की कुल आबादी के हितों की बली चढ़ा दी गई। और महज कुछ महीनों की सत्ता का सुख भोगने के लिए दिनरात जोड़तोड़ की कवायद जोरों पर है। इन सब के बीच हरदम हाशिये पर रहने वाला आम आदमी ये नहीं समझ पा रहा कि अमरीका ,जो हरदम भारत के ख़िलाफ पड़ोसी मुल्कों को पिछवाड़े से उकसाता रहा है..(साथ ही आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक सहयोग भी) करता रहा है..आचानक जाते हुए राष्ट्रपति ने कौन सी घुट्टी पी ली है..जो सब भुलाकर भारत का हितैषी बन गया है एक बहुत छोटा सा सवाल किसी ने मुझसे पूछ लिया कि ..भैय्या जब भारत को अपनी उर्जा जरूरतों के लिए क़रार करना ही है ..तो केवल अमेरिका के पीछे ही काहे पड़े हो..उससे भी बड़े सप्लायर है..न्यूकिलियर सप्लायर ग्रुप में उनसे काहे करार नहीं करते ..सवाल तो बड़ा छोटा है लेकिन मुद्दे को गंभीर बनाता है..वैसे भी हम भारतीयों की एक आदत जिससे हम मजबूर हैं..वो ये कि जब भी कोई बहस छिड़ जाती है..तो उसमें हम कूद जरूर जाते हैं ..उससे चाहे हमें छटाक भर भी लेना या देना न हो..उस वक्त हमें न तो अपने वक्त का खायाल रहता है..और बहस मुबाहिसे में लगे दूसरे भाई का ...लेकिन एक बात जो काफी अहम है....कि आम आदमी के हितों की आवाज कहीं न दब जाए..जो देश की सरकार को चुनने में सबसे ज्यादा भागीदार होता है(ये आंकड़े बताते हैं कि 50 से 60 फीसदी मतदान में सबसे बड़ा हिस्सा गांवो और कस्बों और शहर के निम्न मध्यम वर्गों से आता है) उसके टुने हुए प्रतिनिधियों को ये बारबार याद दिलाने की जरूरत है कि भाई उसका तो ख़याल करो जिसने तुम्हें अपना ख़ुदा बना दिया.